
इस विषम काल में मात्र कन्याओं के विवाह की ही समस्या नहीं है, बल्कि लड़कों के लिए भी है। उचित कुल, शील, स्तर एवं सामाजिक प्रतिष्ठा के दृष्टिकोंण में रखते हुए जब वधु-चयन किया जाता है तो निश्चितरूपेण स्थिति सहज-सरल नहीं रहती। इसका समाधान करने के लिए मंत्रावलंब एक शुद्ध माध्यम है। इस संदर्भ में अनुष्टुप छन्द में निबद्ध और इन्द्र का अधिपतित्व ग्रहण करने वाले निम्निलिखित मन्त्र का सम्यक् अनुष्ठान परिणय-त्वरिता के लिए प्रसिद्ध है-
प्रयोग-प्रथम
आगच्छत आगतस्य नाम गृहलाम्यायतः।
इन्द्रस्य वृत्रघ्नो वन्वे वासवस्य शतक्रतोः।।
येन सूर्या सावित्रीमश्विनोहतुः पथाः।
तेन मामब्रवीद्भगो जायाया वहताविति।।
यस्तेऽड्कुशों वासुदानों बृहन्निन्द्र हिरण्ययः।
तेना जनीयते जाया मह्ये धेहि शचीपते।।
प्रयोग-द्वितीय
प्रातः काल शु़द्ध होकर दुर्गा जी के चित्र पर लाल पुष्प समर्पित करें, दीप प्रज्ज्वलित करके षोडशोपचार पूजन करें तथा निम्नांकित मन्त्र का 108 बार जप करें। यह प्रयोग विवाह सम्पन्न होने तक करें-
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृतानुसारिणीम्।
तारिणी दुर्गसंसासागरस्य कुलोद्भवाम् ।।
प्रयोगाविधि में उद्दिष्ट का निरन्तर ध्यान रखें। इसी मन्त्र से दुर्गाग्सप्शती के 18 या 36 सम्पुट पाठ करने अथवा किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा करवाने से शीघ्र ही सुयोग्य, सुंदर व सच्चरित्र पत्नी प्राप्त होती है।
पं. गिरधर लाल रंगा