
आईपल्लवितैः परस्परयुतैद्र्वित्रिक्रमाद्यक्षरैः
काद्यैः क्षान्तगतैस्स्वरादिभिरथ क्षान्तैश्चतैस्सस्वरैः
नामानि त्रिपुरै भवन्ति, खलुयान्त्यन्त्यगुहयानिते
तेभ्यो भैरवपत्नि विंशति सहस्त्रैभ्य परेभ्योनमः
उपायात्मक मन्त्रों (अक्षरों) के रूप में परमेश्वर ही स्फुटित होता है।
‘मन्त्रोऽपि अन्तर्गुप्त भाषणात्मक परपरामर्श सतत्वे मननत्राण धर्मा परतत्व प्राप्त्युपाय परमेशात्मैवां परमेश्वर एव हि उपेय पदवदुपाय रूपतया स्फुरितः (स्वच्छन्द तन्त्र)
उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्राश्चापितद्विदुः (मन्त्रागम)
वस्तुतः उच्चारण किये जाने वाले मन्त्र, मन्त्र नहीं हैं। इसका प्रमाण हिन्दु विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति स्वनामधन्य श्री गंगाधरजी झा एवं मि. विल्सन का संवाद है। मि. विल्सन महोदय ने झा जी से कहा- आपका गायत्री मन्त्र तो यजुर्वेद के 36 वें अध्याय का 37 वां मन्त्र तो है। झा साहब ने कहा , नहीं, गायत्री मंत्र वो मंत्र है जिसे यज्ञोपवित संस्कार के समय शिष्य (बटुक) के कान में जो उपदेश किया जाता है, वो ही है, अन्य नहीं। पुस्तकों में लिखा मन्त्र मन्त्र नहीं हो सकता, वे अक्षर, वर्ण मात्र हैं।
‘वर्णात्मको न मन्त्रों दशभुज देहो न पंचवदनौऽपि संकल्प पूर्वकोटौ नादोल्लासों भवेन्मन्त्रः’ (महार्थ मंजरी)
क्हते हैं मन्त्र वर्णात्मक नहीं है और न वे पंचवदन वाले और न दश भुजधारी हैं, विश्व विकल्प की वर्ण कोटि में जो नाद का उल्लास है, वही मन्त्र है।
मन्त्राणां जीवभूतातु या स्मृताशक्तिख्यया
तयाहीना वरारोहे निष्फला शरदभ्रवत् (शिवसूत्र विमर्शिनी)
मन्त्रों की जीवभूत अव्यय शक्ति (गुरुकृपा से प्राप्त) ही मन्त्र पदवाच्य हैं, उससे रहित मन्त्र शरद्काल के मेघ के सदृश निष्फल रहता है।
‘मननत्राण धर्माणो मन्त्राः’
मनन और त्राण, ये मन्त्र के दो धर्म है, परनाद अथवा परस्फुरणा का परामर्श ही मनन है। मनन परमशक्ति के महान वैभव की अनुभूति है, उसके परमेश्वर्य का उपभोग हैं।
अपूर्णता अथवा संकोचमय भेदात्मक संसार के प्रशमन को रक्षा अथवा त्राण कहते है। इस प्रकार शक्ति के वैभव या विकास दशा में मननयुक्त तथा सांसारिक अवस्था में त्राणमथि (दुःख की स्थिति) में विश्वरूप विकल्प को कवलित कर लेने वाली अनुभूति ही मन्त्र हैं।
– पं. मक्खनलाल व्यास ‘शास्त्री’