
स्वाध्याय स्व से मिलता हैं स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ स्व $ अध्ययन से है स्वाध्याय एक महान गुण है।
’द्रव्यज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथपरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशित व्रताः।।
श्री कृष्ण कहते है कई प्रकार के यज्ञ होते है जिसमें स्वाध्याय को भी यज्ञ माना गया है।
स्वाध्याय से पुरूष अपने में नित नये ज्ञान का भंडार भरता है। ज्ञात ज्ञान से अज्ञात ज्ञानार्जन की ओर बढ़ता है।
’विद्या धन उद्यम बिना, कही ज्यौं पावै कौन।
बिना डुलाये ना मिले, ज्यौं पँखे में पौन।।
स्वाध्याय निरन्तर, नियमित और सतत होना चाहिए। सद्विचारों का आगमन व कुविचारों का निष्क्रमण स्वाध्याय से होता है।
’भारतीय मनीषियों ने ’सत्यं वद’ धर्म चर, के साथ तालमेल बैठाने के लिए तीसरा सूत्र दिया है ’स्वाध्यायान्मा प्रमद’ (तैŸिारीय उपनिषद 1/11) अर्थात् स्वाध्याय से कभी न चुको।
पतंजलि ने स्वाध्याय को परम योग कहा है। याज्ञवल्क्य ने स्वाध्याय को ब्रह्म यज्ञ कहा है।
स्वाध्याय से मनुष्य में वाणी का तप, चिन्तन-मनन की प्रवृŸिा, धैर्य में वृद्धि विचार शक्ति व मानसिक शांति प्राप्त होती है।
छन्दोग्य उपनिषद में कहा गया है-
’त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञो अध्ययनं दान मिति’
अर्थात् धर्म के तीन स्तम्भ है यज्ञ, स्वाध्याय, दान।
मनुस्मृति में कहा है-
न पढ़ने वालों से पढ़ने वाले श्रेष्ठ है और उनसे वे श्रेष्ठ है जो पढ़कर मनन करते है।
मनन से अभिप्राय जानने वाले श्रेष्ठ है और उनसे श्रेष्ठ आचरण करने वाले है।
स्वाध्याय के गुण ने एकलव्य को इतिहास में अमर बना दिया है। स्वामी विवेकानन्द अठारह घंटे स्वाध्याय करते थे। इससे स्मृति विकसित हुई।
पान सड़े, घोडा अड़े, विद्या बिसर जाय, रोटा जले अंगेरा – क्यांे फेरा नहीं (स्वाध्याय नहीं) जाय।
भवानीप्रसाद मिश्र ने कहा –
कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो।
तू जिस जगह जागां सवेरे,
उससे कुछ आगे बढ़के सोच।
स्वाध्याय से श्रेष्ठ कुछ नहीं हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने सरल अन्तःकरण वाले व्यक्ति के गुणों में स्वाध्याय को भी एक आवश्यक गुण बताया है।
-श्रवण कुमार गहलोत